Tuesday 6 November 2012

यह कल-कल छल-छल बहती, क्या कहती गंगा धारा ?


यह कल-कल छल-छल बहतीक्या कहती गंगा धारा ?
युग-युग से बहता आतायह पुण्य प्रवाह हमारा धृ 

हम इसके लघुतम जल कणबनते मिटते हैं क्षण-क्षण 
अपना अस्तित्व मिटाकरतन मन धन करते अर्पण 
बढते जाने का शुभ प्रणप्राणों से हमको प्यारा 

इस  धारा में घुल मिलकरवीरों की राख बही है 
इस  धारा में कितने हीऋषियों ने शरण ग्रही है 
इस धारा की गोदी मेंखेला इतिहास हमारा 

यह अविरल तप का फल हैयह राष्ट्रप्रवाह प्रबल है 
शुभ संस्कृति का परिचायकभारत माँ का आँचल है 
हिंदु की चिरजीवनमर्यादा धर्म सहारा 

क्या इसको रोक सकेंगेमिटने वाले मिट जाएँ  
कंकड पत्थर की हस्तीक्या बाधा बनकर आए 
ढह जायेंगे गिरि पर्वतकाँपे भूमंडल सारा 

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